Friday, 31 May 2019

A poetry full of love | gazal | ae husna meri |

शीन सी पेशानी तेरी क़ाफ़ सी नाक है
ए हुस्ना मेरी तेरा अंदाज बेबाक है

सिरहाने लेट के उसके सोचा करता हूं
ये चमकती सी झील है या उसकी आंख है

दाग़दार न हो जाए इसलिए साथ चलता हूं
औरत का दामन है थोड़ी कोई मज़ाक है

उसका अंगड़ाइयां लेना और मेरा देखते रहना
उसकी बदन मानो पेड़ की लचकती शाख है।

अनस आलम
https://anasafroz.blogspot.com/2019/05/tehzeeb-poetry-gazal-mehboob-se-baaten.html?m=1

Tehzeeb poetry | gazal mehboob se baaten Karti hui |


Gazal hamesha se ek khoobsurat ehsaas ka zariya rahi hai english zabaan me isi poetry bhe kehte hain ham ise tehzeeb se bhe jod sakte hain, vo thezeeb jo ise kabhi sikhani nahin padti ye khud b khud tehzeeb k raste apnati hai | tehzeeb poetry |

Thursday, 30 May 2019

A poetry by love of heart | love poetry | gazal | maine Cigarette jalai vo yaad aane laga |

उसके वापस आने का यकीन जाने लगा,
मैनें सिगरेट जलाई, वो याद आने लगा

बागों में तितलियां थीं तितलियों में कई रंग,
फिर मुझे उसका दुपट्टा याद आने लगा

कितना मासूम था उसका हर एक आंसू,
मेरे दामन पे गिरा तो दाग़ मिटाने लगा

इस ख़ाली कमरे से पूछो मैं कैसा था,
वो तो तुम आगई मैं हसने गाने लगा

महफिलों से मेरा कोई वास्ता था ही नहीं,
उसकी सोहबत में आके मैं भी शेर सुनाने लगा

अनस आलम।


Tuesday, 28 May 2019

Chehre ho subha zulfon ko shaam | gazal |

चेहरे को सुबह जुल्फों को शाम बना कर देखते हैं,
घूंघट को अदब आंखो को जाम बना कर देखते हैं

सफर की शुरुआत और मंज़िल की तलाश में हूं,
तेरे होठों को आगाज़ सांसों को अंजाम बना कर देखते हैं

दुनिया के तमाम पेशों को आज ठुकरा कर,
जुल्फों को संवारना एक काम बना कर देखते हैं

दर्द, रुसवाई, सितम, चाहत, जुदाई, सब छोड़ कर,
तेरी आंखो पर कोई कलाम बना कर देखते हैं।

अनस आलम।

Ziya sahab ko arbi sikha di | kissa |

पडोसी ज़िया साहब हाथों में बड़ी बड़ी, सामान से भरी, थालियां लिए जा रहे थे। आज चाँद रात है, जैसे ही हमारे सामने से गुज़रे, हमने कह दिया, ज़िया साहब,   रमज़ान मुबारक !
झट से रुके, पास बुलाया और बेहद सख़्त लहजे में बोले : आप तो पढ़े लिखे लगते हैं! हमने भी सर झुका कर जवाब दिया: जी कुछ तो पढाई की है।
ज़िया साहब भी तुनक कर कहने लगे-- देखिये रमादान होता है सही लफ्ज़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ्ज़ है अरबी की तरह बोला जाना चाहिए। समझे के  नहीं?
हमारी ग़लती थी सर झुका के मान ली और अदब से कहा -- आप सही कह रहे हैं "धिया साहब"!

वो फ़ौरन चौंके, कहने लगे "अरे ये धिया कौन है".
मैंने कहा "आप हैं"  वो बोले अरे भाई मैं ज़िया हूँ।
मैंने कहा जब रमज़ान -- रमादान हो गया तो फिर ज़िया भी तो धिया हो जाएगा। ये ज़िया भी तो अरबी लफ्ज़ है। ज़ोआद का तलफ़्फ़ुज़ ख़ाली रमादान तक क्यूँ महदूद हो
ख़ैर बात ख़त्म हुई, ज़िया साहब जाने लगे तो हमने पीछे से टोक दिया...."कल इफ्तारी में बकोड़े बनवायेगा तो हमें भी भेज दीजियेगा"
फ़ौरन फरफरा के पलटे--ये बकोड़े क्या चीज़ है।
हमने कहा अरबी में "पे" तो होता नहीं, इसलिए पकोड़े भी बकोड़े हुये, पेप्सी भी बेप्सी हुयी।
एक दम तैश में आ गए....तुम पागल हो गए हो।
हमने कहा...पागल नहीं बागल कहिये.
ग़ुस्सा उनका सातवें आसमान पर चला गया, कहने लगे अभी चप्पल उतार कर मारूंगा।
मैंने कहा चप्पल नहीं शब्बल कहिये, अरबी में "च" नहीं होता। उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया कहने लगे 'अबे गधे बाज़ आ जा'।
मैंने कहा बाज़ तो मैं आ जाऊँगा लेकिन गधा नहीं "जधा" कहिये। अरबी में "ग" भी नहीं होता।

अब उनके जलाल की कोई थाह नहीं थी, कहने लगे "आख़िर अरबी में होता क्या है"
कम हम भी नहीं हैं...ज़बान हमारी भी फिसल जाती है। बस कह दिया "आप जैसे शूतिया".

वैसे आप सबको रमज़ान की आमद की तमाम मुबारकबाद, इस बार कोशिश करें रोज़ा नफ़्स का हो, सिर्फ पेट का नहीं।

#उर्दू_को_जीने_दो

Monday, 27 May 2019

Ishq me neelam ho jao | gazal |

मेरे होठों पर एक कांपता सवाल सा रह गया, 
मेरी बाहों में तू, ये खयाल सिर्फ खयाल सा रह गया 

वो हमे मिटा कर सोचते हैं खत्म हमारा वजूद, 
हम तो रुखसत हो गए हमारा इश्क़ मिसाल सा रह गया

ज़माना सर्द हवाएं बन कर तुझे छूना चाहता था, 
 मैं ताउम्र तेरी बदन पर शाल सा रेह गया 

 हर रात  ख्वाबों में जी भर कर जिया तुझे लेकिन, 
लबों पर कुछ ख्वाहिश - ए - वीसाल सा रह गया 

मेरी मोहब्बत पाक़ीज़ा है इसमें कोई शक नहीं लेकिन, 
उस रात तुम्हें न छूने का मलाल सा रह गया 

ज़माना क्या जाने तू मुझसे लिपट कर रोई थी,
लोगों ने सिर्फ ये देखा कमीज़ पर कुछ बाल सा रह गया 

सब ने  देखा के तुमने भरी महफिल में मुझसे हाथ  छुड़ाए, 
मैंने देखा तेरे चेहरे पर ज़ाहिर दिल का हाल सा रह गया 

अनस आलम



Sunday, 26 May 2019

Ek hakikat | gazal ek sacchai |


Magroor insaan | akela |

अपनों में ही खुद को मगरूर कर रक्खा है,
इंसान ने खुद को कितना मजबूर कर रक्खा है

पुराने किस्सों से कहां इनका वास्ता रह गया है,
बच्चों ने बुजुर्गों से खुद को दूर कर रक्खा है

खामोश बंद कमरे में गुमनाम होना चाहता हूं,
ये तो मेरी तेहरीरों ने मुझे मशहूर कर रक्का है

ज़रूरत ही नहीं सजने संवरने की उसको,
मुस्कुराहट को जो चेहरे का नूर कर रक्खा है

कदम उठाया है मंज़िल की तरफ तो खौफ कैसा,
रास्तों के कांटों को हमने मंज़ूर कर रक्खा है

अनस आलम


Saturday, 25 May 2019

अजीब कशमकश

मैं एक अजीब किस्म के सन्नाटे को देख और सुन सकता हूं, इस हजारों की भीड़ में जिनका शोर कानों को चुभता है,
मुझे नजर आता है कि लोग अपनी आंखो पर पट्टी बांधे भी देख सकते हैं, क्या उनकी आंखो की पट्टी सिर्फ मुझे नजर आती है, क्या उनकी आंखो की पट्टी सिर्फ उन्हें कोई एक चीज देखने से रोक रही है, इन सब के जिस्मों पर लिबास एक रंग का क्यूं है, ये कौन लोग हैं इनकी आवाज़ का नारा मेरी रूह को देहला क्यूं रहा है, मैं दूर खड़ा एक आग को धीरे धीरे शहर की ओर बढ़ता देख रहा हूं इस आग की आंच कुछ लोगों को बहुत ठंडक पहुंचा रही है हालांकि मैं देख सकता हूं यही आग उनके जिस्म से चमड़ी को बहुत बेदर्दी से अलग कर रही है मैं उस आग में जलते लोगों का दर्द महसूस कर सकता हूं पर शायद उनकी आंखों की पट्टी उन्हें वो आग देखने से रोक रही है इस आग को बुझा पाना नामुमकिन सा लगता है, मैं बस बेसहारा हो कर अपनी और अपनों की तबाही देख रहा हूं।

अनस आलम

Friday, 24 May 2019

Meri hadon ko aamane koi aaya to tha | gazal |

मेरी हदों को आज़माने कोई आया तो था,
इस समंदर को हाथों में उठने कोई आया तो था

मुद्दातों बाद आज किसी के क़दमों कि आहट सुनी,
मेरे इस वीराने को घर बनाने कोई आया तो था

सबको चौखट से बाहर कर दिया दगाबाज समझ कर,
उसमे कोई मेरे साथ रह जाने आया तो था

किसी को अपनाना तो चाहता हूं मगर दिल नहीं मानता,
पिछले बरस मुझे कोई बहुत तड़पने आया तो था

खूबसूरत थी वो रात मुझे याद है आज भी,
सर्द आंहों को आंच बनाने कोई आया तो था

अनस आलम



Thursday, 23 May 2019

Gazal | ek dard |

ये सैलाब मेरी दहलीज तक आ ना पाएगा,
मैं वो तिनका हूं, एक समंदर में समा ना पाएगा

जमाना चाहे बिक जाए आज की सियासत के हाथों,
मेरा ज़मीर मेरा पिंदार गवा ना पाएगा

अंधेरा ही रहने दो इन नफरत की गलियों में,
ये शहर कभी मोहब्बत कमा ना पाएगा

नफरत हावी है तेरे ज़हन पर इस क़दर,
अपनी आंखे खोल तू मुझसा हमनवा ना पाएगा

अनस आलम




Kulfi wale chacha

मेरी बचपन की हर याद की तरह ये याद भी धुंधली होने को थी कि मैंने उस आदमी को एक आइसक्रीम की गाड़ी को दोपहर कि चिलचिलाती धूप में खींचते देखा, हल्के सावले रंग का ये आदमी जिसके जिस्म पर सुती कपड़े का एक मैला सा कुर्ता था पैरों में वही पुराने जुते और सर पर एक फिरोजी गमछा था मैं जरा हिचकिचाते उसकी तरफ बढ़ा और कहा,

"चाचा गरी के बुरादे में लपेट कर वो 2 रुपए वाली कुल्फी देना"

वो मुझे एक टक देखने लगा चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट लिए मुझे पहचानने की नाकाम कोशिश करते हुए उसने कहा

"बहुत देर कर दिए बेटा, 8साल पहले आए होते तो दे देते"

मैं ये सोच ही रहा था कि ये इंसान आज भी वही काम  कर रहा है तब तक उसने कहा "का हुआ बेटा का सोचने लगे

इस आदमी की आंखो में वही पुरानी चमक थी उसकी आवाज़ में वही पुराना अंदाज़ मुझे इस आदमी से ज़्यादा दिलचस्पी उसकी आवाज़ में थी जिससे वो बच्चों को बुलाया करता था "ले ले ले ले ले कुल्फी ई ई ई ई ई ई"

मैंने कहा चाचा क्या बात है आपका ठेला तो आज एक फर्स्ट क्लास गाड़ी में तब्दील हो गया है अब भी बच्चों को क्या वही आवाज़ें दे कर अपनी तरफ बुलाते हो,
उसने कोई जवाब नहीं दिया बस मुस्कुरा कर रह गया फिर मैंने पूछा क्या आपने पहचाना मुझे तो कहने लगा हां बेटा मुझे याद है तुम हमेशा 2 रुपए की कुल्फी खाते थे और अपनी कमीज पर गिरा लेते थे और कहते थे चाचा ऐसी कुल्फी बनाओ जिसे ये सूरज ना पिघला पाए,
मुझे जान कर बहुत कुशी हुई कि मैं उसे याद हूं फिर हमने एक दूसरे का हाल चाल लिया और वो अपनी राह को चल दिया मैं भी अपने रास्ते चलने लगा कुछ सोच ही रहा था कि पीछे से एक आवाज़ आई
"ले ले ले ले ले  कुल्फी ई ई ई ई ई ई"

फिर मैंने पलट के देखा तो हमारी नज़रें मिली और मैं बस मुस्कुराते हुए अपनी राह पर आगे बढ़ने लगा,जाने अंजाने में वो कुल्फी वाला एक और याद दे गया एक खूबसूरत याद।

अनस आलम।





Tuesday, 21 May 2019

Election | चुनाव एक समोसा |

समोसे कि दुकान पर खड़े 2 लोग बहुत देर से एक दूसरे पर अपनी राय थोपने में लगे थे पहला आदमी अपनी चाहने वाली पार्टी की तरफदारी कर रहा था तो दूसरा आदमी अपनी चाहने वाली पार्टी की तरफदारी कर रहा था, और ये तमाशा कुछ दूर पर खड़ा बंटी बड़े गौर से देख और सुन रहा था,

उन दोनो आदमियों की बहस करीब आधे घण्टे चली मगर उस बहस का कोई नतीजा नहीं निकल सका और आखिर में दोनो आदमी 2-2 समोसे खा कर वहां से रवाना हो लिए इस नज़ारे का तमाशबीन वो समोसे वाला भी था,

बंटी बेचारा नए उम्र का लड़का उसे समझ नहीं आता था कि कौन सही है और कौन गलत, तब समोसे वाले ने उससे कहा "क्यों बेटा क्या बात है कुछ घुसा दिमाग में"

इतना सुनते बंटी मुस्कुराने लगा और बोला नहीं चाचा कुछ समझ नहीं आता कौन देश को लूटना चाहता है और कौन देश को आबाद करना चाहता है?

तब समोसे वाले ने कहा "अगर तुम्हे मेरे यहां के समोसे और मांगनी राम के यहां के समोसों में फर्क करना हुआ तो कैसे करोगे?
बंटी बोला "पहले आपके यहां के समोसे खाऊंगा और फिर मांगनी राम के फिर फैसला लूंगा की क्या फर्क है और दोनो में से कौन ज़्यादा अच्छे समोसे है"

समोसे वाला झट से बोला "बिल्कुल सही ये सियासत भी समझ लो एक समोसा ही है तुम्हे दोनो पक्षों को आंकना होगा अपनी मज़हबी भावना को एक किनारे रख कर तुम्हे दोनो को उनके काम के मुताबिक आंकना होगा तुम्हे किसी के खयालों को खुद पर हावी नहीं होने देना है तुम्हे खुद फैसला लेना है ।

बंटी बोला आप सही कह रहें हैं मगर मीडिया का क्या?

तो समोसे वाले ने कहा "मान लो ये दोनो को थोड़ी देर पहले बहस कर रहे थे ये दोनो एक दूसरे के खिलाफ खड़े हुए नेता है और मैं मीडिया वाला" इन दोनो ने क्या किया आधे घंटे बहस किया और मेरा 2-2 समोसे का फायदा कर गया,
समोसेा सुनते ही बंटी ज़ोर ज़ोर से हसने लगा और 2समोसे उसके यहां से ले गया और रास्ते में मांगनी राम के समोसे भी चखते गया।

अनस आलम

Gazal क्या है ?



ग़ज़ल क्या है? 

लफ़्ज़ों में बायां किए गए वो एहसास जो आप किसी को हासिल करने की ख्वाहिश में कहते है।
या यूं कहूं की बस मेहबूब से बातें करना ही ग़ज़ल है,या एक खूबसूरत एहसास जो सीने में उतार गया हो, 
 ग़ज़ल वो है जो एक शायर तब कहता है जब उसे कोई ऐसी चीज़ें दिखे समाज में जिसे वो अपने सुखनवरों को बताना चाहता हो, ये किसी औरत पर हो रहे ज़ुल्म के बारे में भी हो सकता है या रोज़ भूखे सो रहे गरीब बच्चों के लिए, एक वक्त था जब ग़ज़ल पर बड़ी बंदिशें थी कि वो सिर्फ इश्क़, मोहब्बत, यार, रकीब, की गलियों में भटक सकती थी उसे इजाज़त नहीं थी कि वो अपने खुशबूदार अल्फाजों से किसी मां के दर्द या खुशी को बायां कर सके या किसी किसान के पसीने की एक बूंद का वज़न बायां कर सके क्यूं ग़ज़ल को मेहबूब के क़दमों में सजा कर रखा जाए क्यूं ग़ज़ल को एक बेशकीमती हीरा बना कर तिजोरियों में रखा जाए, ज़रुरत तो ये है के इसे भटकने दो गलियों में चौबारों पे ताकि ये ग़ज़ल किसी चौराहे पर फटे से कपड़ों में फूटपाथ पर सो रहे एक गरीब बच्चे को अपनी बाहों में भर कर उसका दर्द इस समाज इस दुनिया के सामने लाएं, ज़रुरत तो ये है कि ग़ज़ल एक शहर की तरह हो और उस ग़ज़ल के शेर सड़कों की शक्ल इख्तियार कर लें ताकि हर शेर उस शहर की बेबसी देख पाएं।

अनस आलम।

Monday, 20 May 2019

Mulakat | ek intezaar umr bhar ka |

सिलसिला मुलाकात का इंतजार में रह गया,
ज़माने से अनजान मैं प्यार में रह गया

सब ने इश्क़ की क़ीमत लगाई और हासिल कर लिया,
सौदेबाज़ी से बेख़बर मैं बाज़ार में रह गया

ये इश्क है इससे‌ ज़रा ख़बरदार रहिये जनाब,
रांझे मिट गए अनारकलियों का दिल दिवार में रह गया

वो तो सीख गए मेरे बग़ैर ज़िन्दगी गुज़ारना,
मेरा सफर अबतक जुस्तजू - ए - यार  में रह गया

शमशीरें तय्यर थी सबकी जंग की खातिर,
मैं शायर था कूं - ए - यार में रह गया

अनस आलम।


Saturday, 18 May 2019


गुज़रे वक्त का वो फसाना याद आता है,
छुप छुप के मिलने का ज़माना याद आता है

कंबल में हिचकिचाते दो जिस्मों का,
लिपट जाने का बहाना याद आता है

शर्म  की  उस   चाशनी  में  डूबी  वो आंखें, 
फिर बेपरवाही से जुल्फों का बिखर जाना याद आता है

जिस्मों की बहकी सी कुछ ख्वाहिश लिए,
रातों का गुज़र जाना याद आता है

उस  गली की  यादें अब  तक ताज़ा हैं,
खिड़की निहारता एक लड़का दीवाना याद आता है

सफर में कांटों का सिलसिला बढ़ता रहा,
कांटों पर चल के तेरा निभाना याद आता है

अनस आलम

Wednesday, 15 May 2019

Ek gazal | तेरी आंखो में हमेशा नमी नज़र आती है |

तेरी आंखो में हमेशा नमी नज़र आती है,
तेरे वजूद में मेरी कमी नज़र आती है

बरसात उस मगरूर आसमान के हाथो में है,
बहुत लाचार मुझे ये ज़मीं नज़र आती है

हस के सह लेती है तेरा हर सितम,
ये औरत अंदर से ज़ख्मी नज़र आती है

तुझे आते होंगे नज़र कई रंग यहां पर,
मुझे तो बस एक सरजमीं नजर आती है

अनस आलम



Thursday, 9 May 2019

Magroor insaan |अपनों में ही खुद को महरूर कर रक्खा है |

अपनों में ही खुद को मगरूर कर रक्खा है,
इंसान ने खुद को कितना मजबूर कर रक्खा है

पुराने किस्सों से कहां इनका वास्ता रह गया है,
बच्चों ने बुजुर्गों से खुद को दूर कर रक्खा है

खामोश बंद कमरे में गुमनाम होना चाहता हूं,
ये तो मेरी तेहरीरों ने मुझे मशहूर कर रक्का है

ज़रूरत ही नहीं सजने संवरने की उसको,
मुस्कुराहट को जो चेहरे का नूर कर रक्खा है

कदम उठाया है मंज़िल की तरफ तो खौफ कैसा,
रास्तों के कांटों को हमने मंज़ूर कर रक्खा है

अनस आलम।

Tuesday, 7 May 2019

Mere khayalon ka sara jahaan le gaye | gazal |

मेरे खयालों का ये सारा जहान ले गए,
ज़मीन इंसानों ने ली परिंदे आसमान लेगए

खुद को अपनी नज़रों में गिरा हुआ पता हूं,
मेरे अपने इरादे मेरा ईमान लेगए

मैं सूरज हूं मुझे शाम को ढलना ही है,
पागल जुगनू सोचते हैं ये मेरा मुकाम लेगए

सब साथ मिल कर जलें तो रौशनी ज़्यादा होगी,
यहां चराग़ अपने हिस्से का थोड़ा थोड़ा मकान लेगए

अनस आलम।

Monday, 6 May 2019

Ishq | ek samandar |

इश्क़ कर के औरों की फ़िक्र नहीं करते,
समंदर में उतर कर लहरों की फ़िक्र नहीं करते

ये सफर में बहुत मिलेंगे रास्ता रोकने वाले,
मंज़िल चाहिए तो गैरों की फ़िक्र नहीं करते

चाहत सरहद के पार है और हिचकिचाते भी हो,
उस हासिल करना है तो पहरों की फ़िक्र नहीं करते

जब तलक ज़िंदा हूं ये ज़मीन नहीं छोड़ पाऊंगा,
हम गांव के लोग शहरों की फ़िक्र नहीं करते

उसने नक़ाब हटाने को कहा पर हमने कह दिया,
हम किरदार की ख़ुशबू के आगे चेहरों की फ़िक्र नहीं करते

अनस आलम।

Din me rahoon to raushan shaam dhoondhta hoon.

दिन  में रहूं तो मैं रौशन शाम ढूंढता हूं,
मदहोशी  में तो बावर्चीखाने में भी जाम ढूंढता हूं


तनहा हूं, तार्रुफ कराओ मेरा ज़रा कुछ हसीनो से,
इस क़दर खाली हू के कुछ काम ढूंढ़ता हूं


तुमने ही आदत बिगाड़ी मेरी खिड़कियों से झांक,
में पागल अब हर दरख़्त पर आम ढूंढ़ता हूं


इस तरह से घेरा है मोहब्बत ने मुझे "आलम"
की हर किताब में ग़ालिब का नाम ढूंढ़ता हूं

अनस आलम..


Sunday, 5 May 2019

MAA KA DIL

उसका मेरी बंद आंखो को चूमना 

अपनी ज़ानों पर घंटों मेरा सर रख कर बालों में उंगलियां फेरना

मैं भले रूठ जाऊं पर उसका मुझे चाहते रहना 

ऐसी कुव्वत मां के दिल के सिवा किसी दिल को हासिल नहीं 

देखी ही नहीं आज तक ऐसी तड़प जो तेरी आंखो में थी मेरे घर छोड़ते वक्त थी

देखा ही नहीं आज तक ऐसा आंचल जिसकी खुशबू आज तलक बरक़रार है 

देखी ही नहीं ऐसी आह जो मुझे चोट लगने पर तेरे कलेजे से निकलती है 

कभी कभी लगता है तेरे किरदार को बायां करने का मर्तबा कोई शायर नहीं रखता 

कभी कभी लगता है एक ग़ज़ल में तुझे उतार पाना नामुमकिन सा है 

कभी कभी लगता है मेरे सारे एहसास जो तेरे लिए हैं वो एक नज़्म में समा नहीं पाएंगे 

पर फिर भी अपनी इस नाकाम कोशिश में ये कोशिश कर रहा हूं के तुझे बायां कर सकूं 

लजीज रोटियों के पीछे न जाने कितनी बार जले हाथ थे 

तुम्हे खिलाने के वास्ते न जाने उसकी कितनी बार भूखी रातें थी

तुम्हे पैदा करते वक्त ऐसा दर्द जो किसी मर्द के लिए सेहेन कर पाना नामुकिन है 

पर फिर भी तुम कहते हो पैदा तो सब करते हैं पालते सब हैं 

सच में ऐसी मोहब्बत की कुव्वत मां के दिल के सिवा किसी दिल को हासिल नहीं। 

अनस आलम 

Saturday, 4 May 2019

Maa | ek Azeem shakhsiyat |

जिस शाख़ का पत्ता हूं उसकी गोद में सो लूं आज,
मां सामने है जी चाहता है लिपट के रो लूं आज

ये जो इत्र बहुत नाज़ करते हैं अपनी खुशबू पर,
शर्मा जाएं, मां के आंसुओं से गर दामन भिगो लूं आज

ये दैर-ओ-हरम में रूह पाक करने को भटकता था,
मां के क़दमों में किए सजदों से पाक हो लूं आज

वो वक्त आजाए के मां फिर से दौड़े मेरे पीछे,
जी चाहता है फिर घी में उंगलियां डुबो लूं आज

अनस आलम

x

जलते चारागों का मुस्तकबिल नहीं होता

जलते चरागों का मुस्तकबिल नहीं होता,

क्यूंकि हवाओं का कोई दिल नहीं होता 


कौन अपना कौन पराया वो खुद बताएंगे, 

हर शख्स दुख सुख में शामिल नहीं होता 


हर बार घायल होगा मगर उस उठना होगा, 

कोई इश्क़ इतनी आसानी से कामिल नहीं होता 


कभी कभी सोचता हूं क्या ग़ज़ब हो जाता, 

गर तेरे रुखसारों पर ये तिल नहीं होता 


बूंदों में सदियों का सफर तय करता है,

कोई साहिल इतनी आसानी से साहिल नहीं होता 


अनस आलम 


Friday, 3 May 2019

नींद आंखो में है मगर ।

नींद आंखों में है मगर सोता नहीं हूं,
नाकाम रोज़ होता हूं पर रोता नहीं हूं

जिस तरह गवा बैठा हूं तुमको असलियत में,
ख्वाबों में आती हो तो तुम्हे खोता नहीं हूं

तेरे न होने पर भी तुझसे बातें करता हूं,
इतना तो खुद से भी मुखातिब होता नहीं हूं

मेरे चेहरे को खुद के मुताबिक चाहते हो,
ज़मीर मेरा ज़िंदा है कोई मुखौटा नहीं हूं

मेरे मुंह से जो निकलेगा हमेशा सच होगा,
तेरी नोमाईश का कोई रट्टू तोता नहीं हूं

अनस आलम

Use paane ka junoon

अब कहां उसे पाने जुनून सीने में रह गया,
जबसे मैकदों में बैठा पीने में रह गया

जबसे लग गया ज़माने की रफ्तार से कदम मिलाने, 
मैं हसना भूल गया सिर्फ जीने में रह गया

झूठ, मक्कारी की सीढ़ी से वो पहुंच गए आसमान तक
मेरी खुद्दारी का चोला भीगा पसीने में रह गया

सब ने दरिया में उतरकर अपनी प्यास बुझा ली
ये मैं ही था जो अपने सफीने में रह गया

अनस आलम

Yaad hai na....

याद है ना,
मेरे हाथों में वो गुलदस्ता,
तेरे घर तक जाने वाला रास्ता,
तेरा मुझसे अनजाने में वाबस्ता,
ये सब मुझसे पूछते हैं के कहां है तू, 

याद है ना,
तेरा घंटो तक मुझमें हो जाना मशगूल,
तेरे हाथ से मेरा हाथ छू जाना जिसे तू कहती थी भूल,   
किताबों में दबे वो गुलाब के,
ये यादें मुझसे पूछती हैं के कहां है तू,

याद है ना,
तेरा खिड़की से यूं झांकना, 
अपने हाथो से तेरी बदन कि सिलवटों को मेरा नापना,
मेरा पहली बार तुझे छूने पर तेरा वो कांपना,
ये ज़िन्दगी के कुछ पहलू हमेशा सवाल करते हैं कहां है तू,

याद है ना,
तेरी खुशबू दावा थी और मैं कोई बेचैन मर्ज़,
जैसे मैं नमाज़ी और तू कोई नमाज़े फ़र्ज़,
जैसे तेरी बाहें शराफत और मैं कोई बदनाम कर्ज़,
ऐसे ही कुछ किस्से पूछते हैं मुझसे के कहां है तू,

याद है ना,
उन हसीन रातों में मेरी बदन का तेरी बदन से वो पाक वास्ता,
मेरी उंगलियों का सफर, तेरी पेशानी से पांज़ेब तक का रास्ता,
उस कागज़ पर लिखी मोहब्बत के बंटवारे की दास्तां, 
अक्सर  ये खयाल मुझसे पूछते हैं के कहां है तू,
याद है ना।                                          

 ~अनस आलम