गमों की जब इंतहां हो जाती है तब लिखता हूं
उसकी खुशबू सांसों में रवां हो जाती है तब लिखता हूं
पूरे बाग़ में सिर्फ मुझ एक शजर के जब
खिलाफ़ ये हवा हो जाती तब लिखता हूं
सियाह रातों में चरगों का अचानक से बुझ जाना
वो आंख खोलती है सुबह हो जाती है तब लिखता हूं
उसकी आंखे, अदाएं, बाहें, बहुत कुछ है लिखने को मगर
उसकी उंगलियां जिस्म पर निशां हो जाती हैं तब लिखता हूं
अनस आलम
उसकी खुशबू सांसों में रवां हो जाती है तब लिखता हूं
पूरे बाग़ में सिर्फ मुझ एक शजर के जब
खिलाफ़ ये हवा हो जाती तब लिखता हूं
सियाह रातों में चरगों का अचानक से बुझ जाना
वो आंख खोलती है सुबह हो जाती है तब लिखता हूं
उसकी आंखे, अदाएं, बाहें, बहुत कुछ है लिखने को मगर
उसकी उंगलियां जिस्म पर निशां हो जाती हैं तब लिखता हूं
अनस आलम
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