अपनों में ही खुद को मगरूर कर रक्खा है,
इंसान ने खुद को कितना मजबूर कर रक्खा है
पुराने किस्सों से कहां इनका वास्ता रह गया है,
बच्चों ने बुजुर्गों से खुद को दूर कर रक्खा है
खामोश बंद कमरे में गुमनाम होना चाहता हूं,
ये तो मेरी तेहरीरों ने मुझे मशहूर कर रक्का है
ज़रूरत ही नहीं सजने संवरने की उसको,
मुस्कुराहट को जो चेहरे का नूर कर रक्खा है
कदम उठाया है मंज़िल की तरफ तो खौफ कैसा,
रास्तों के कांटों को हमने मंज़ूर कर रक्खा है
इंसान ने खुद को कितना मजबूर कर रक्खा है
पुराने किस्सों से कहां इनका वास्ता रह गया है,
बच्चों ने बुजुर्गों से खुद को दूर कर रक्खा है
खामोश बंद कमरे में गुमनाम होना चाहता हूं,
ये तो मेरी तेहरीरों ने मुझे मशहूर कर रक्का है
ज़रूरत ही नहीं सजने संवरने की उसको,
मुस्कुराहट को जो चेहरे का नूर कर रक्खा है
कदम उठाया है मंज़िल की तरफ तो खौफ कैसा,
रास्तों के कांटों को हमने मंज़ूर कर रक्खा है
अनस आलम।
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