Tuesday, 28 May 2019

Ziya sahab ko arbi sikha di | kissa |

पडोसी ज़िया साहब हाथों में बड़ी बड़ी, सामान से भरी, थालियां लिए जा रहे थे। आज चाँद रात है, जैसे ही हमारे सामने से गुज़रे, हमने कह दिया, ज़िया साहब,   रमज़ान मुबारक !
झट से रुके, पास बुलाया और बेहद सख़्त लहजे में बोले : आप तो पढ़े लिखे लगते हैं! हमने भी सर झुका कर जवाब दिया: जी कुछ तो पढाई की है।
ज़िया साहब भी तुनक कर कहने लगे-- देखिये रमादान होता है सही लफ्ज़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ्ज़ है अरबी की तरह बोला जाना चाहिए। समझे के  नहीं?
हमारी ग़लती थी सर झुका के मान ली और अदब से कहा -- आप सही कह रहे हैं "धिया साहब"!

वो फ़ौरन चौंके, कहने लगे "अरे ये धिया कौन है".
मैंने कहा "आप हैं"  वो बोले अरे भाई मैं ज़िया हूँ।
मैंने कहा जब रमज़ान -- रमादान हो गया तो फिर ज़िया भी तो धिया हो जाएगा। ये ज़िया भी तो अरबी लफ्ज़ है। ज़ोआद का तलफ़्फ़ुज़ ख़ाली रमादान तक क्यूँ महदूद हो
ख़ैर बात ख़त्म हुई, ज़िया साहब जाने लगे तो हमने पीछे से टोक दिया...."कल इफ्तारी में बकोड़े बनवायेगा तो हमें भी भेज दीजियेगा"
फ़ौरन फरफरा के पलटे--ये बकोड़े क्या चीज़ है।
हमने कहा अरबी में "पे" तो होता नहीं, इसलिए पकोड़े भी बकोड़े हुये, पेप्सी भी बेप्सी हुयी।
एक दम तैश में आ गए....तुम पागल हो गए हो।
हमने कहा...पागल नहीं बागल कहिये.
ग़ुस्सा उनका सातवें आसमान पर चला गया, कहने लगे अभी चप्पल उतार कर मारूंगा।
मैंने कहा चप्पल नहीं शब्बल कहिये, अरबी में "च" नहीं होता। उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया कहने लगे 'अबे गधे बाज़ आ जा'।
मैंने कहा बाज़ तो मैं आ जाऊँगा लेकिन गधा नहीं "जधा" कहिये। अरबी में "ग" भी नहीं होता।

अब उनके जलाल की कोई थाह नहीं थी, कहने लगे "आख़िर अरबी में होता क्या है"
कम हम भी नहीं हैं...ज़बान हमारी भी फिसल जाती है। बस कह दिया "आप जैसे शूतिया".

वैसे आप सबको रमज़ान की आमद की तमाम मुबारकबाद, इस बार कोशिश करें रोज़ा नफ़्स का हो, सिर्फ पेट का नहीं।

#उर्दू_को_जीने_दो

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